ये एहसास
कि इक ज़ी-रूह
मिरी आवाज़ के शोले से
जल सकता है
ख़ामोशी के रेशम से
कट सकता है
इतना जाँ-परवर है कि आँखें
बंद हुई जाती हैं ख़ुशी से
भीगी जाती हैं
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हमारी तबाही में कुछ उस का एहसाँ भी है
क़त्ल करने का इरादा है मगर सोचता हूँ
उम्र इंकार की दीवार से सर फोड़ती है
ख़्वाब को दिन की शिकस्तों का मुदावा न समझ
ज़िंदा रहने के तज़्किरे हैं बहुत
जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी
ख़ाली बोरे में ज़ख़्मी बिल्ला
हैं सेहर-ए-मुसव्विर में क़यामत नहीं करते
वो मिरी रूह की उलझन का सबब जानता है
एक दिन ज़ेहन में आसेब फिरेगा ऐसा
एक सुअर से
वो ख़ुश-ख़िराम कि बुर्ज-ए-ज़वाल में न मिला