हमला-आवर कोई अक़ब से है
ये तआक़ुब में कौन कब से है
शहर में ख़्वाब का रिवाज नहीं
नींद की साज़-बाज़ सब से है
लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
वक़्त अकेला इसी सबब से है
हम-ख़यालों के मशरबों का ज़वाल
ख़ौफ़ से जब्र से तलब से है
शोला-बारों के ख़ानदान से हूँ
रूह में रौशनी नसब से है