में अब तक दिन के हंगामों में गुम था
मगर अब शाम होती जा रही है
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ज़िंदगी भर मैं सरगिरानी से
कितने ही ग़म निखरने लगते हैं
मुझ को क्या क्या न दुख मिले 'साक़ी'
मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है
ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही
तू नहीं तो तिरा ख़याल सही
ख़्वाब था या शबाब था मेरा
सामने जब कोई भरपूर जवानी आए
मंज़िलें लाख कठिन आएँ गुज़र जाऊँगा
दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी न था
कौन पुर्सान-ए-हाल है मेरा