गई नहीं तिरे ज़ुल्म-ओ-सितम की ख़ू अब तक
गई नहीं तिरे ज़ुल्म-ओ-सितम की ख़ू अब तक
टपक रहा है मिरी आँख से लहू अब तक
न जाने कब से है मेरे लबों पे तेरा नाम
इसी सबब से तो टूटा नहीं वुज़ू अब तक
तमाम उम्र गुलिस्ताँ में कट गई लेकिन
हुआ नहीं मुझे और एक रंग-ओ-बू अब तक
किसी भी शेर को हासिल हुई न ज़रख़ेज़ी
मैं ढूँढता रहा सहराओं में नुमू अब तक
खुली सराए के जैसा है ये बदन अपना
और इस सराए में चलती रही है लू अब तक
तसव्वुरात के ख़ेमों को रौशनी मिल जाए
इसी ख़याल की है दिल में आरज़ू अब तक
किए थे 'शौक़' जो मेरे जवान बेटे ने
वो दिल के चाक हुए ही नहीं रफ़ू अब तक
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