फिर मैं उन मंज़िलों का तालिब हूँ फिर मैं उस राह से गुज़रता हूँ
फिर मैं उन मंज़िलों का तालिब हूँ फिर मैं उस राह से गुज़रता हूँ
अब मैं तुझ को सदाएँ क्या दूँगा अब मैं ख़ुद को तलाश करता हूँ
हर सदा सुन के दिल धड़कता है मुझ को ख़ामोशियों से दहशत है
क्या करूँ सामना जहान का अब जब मैं परछाइयों से डरता हूँ
मेरी हस्ती अजीब है या-रब अब मुझे ख़ुद पे इख़्तियार नहीं
आलम-ए-बे-ख़ुदी में जीता हूँ मैं ग़म-ए-आशिक़ी में मरता हूँ
अब के दिन कुछ सियाह लगता है अब के तारे बुझे बुझे से हैं
ज़ख़्म खा कर मैं मुस्कुराता हूँ जब सुकूँ पाऊँ आह भरता हूँ
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