कब इस से क़ब्ल नज़र में गुल-ए-मलाल खिला
कब इस से क़ब्ल नज़र में गुल-ए-मलाल खिला
किसी की याद में लेकिन ये अब के साल खिला
अजीब आब-ओ-हवा थी अजीब थी मिट्टी
सो दिल के गोशे में इक फूल बे-मिसाल खिला
मैं छू के देख रही थी कि सब्ज़ा-ए-रुख़ पर
गुलाब-ए-सुर्ख़ की सूरत तिरा जमाल खिला
मैं दम-ब-ख़ुद ही रही और शीशा-ए-जाँ पर
मिसाल-ए-रेज़ा-ए-ख़ुरशीद इक विसाल खिला
सफ़र की शाम सितारा नसीब का जागा
फिर आसमान-ए-मोहब्बत पे इक हिलाल खिला
इसी तरह से तिरी याद गुल खिलाती रही
कि ज़ख़्म भरने लगा जब तो इंदिमाल खिला
ये वाक़िआ है कि इस बार तो बहार के ब'अद
खिला है गुलशन-ए-उम्मीद और कमाल खिला
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