आसेब-सिफ़त ये मिरी तन्हाई अजब है
आसेब-सिफ़त ये मिरी तन्हाई अजब है
हर सम्त तिरी याद की शहनाई अजब है
इक बिछड़े शनासा से मुलाक़ात के बा-वस्फ़
बिखरे हुए लम्हों की शकेबाई अजब है
अब सिलसिला-ए-रंज-ओ-मेहन टूट भी जाए
इस बार तो कुछ तर्ज़-ए-पज़ीराई अजब है
अब मुझ पे खुला अपने दर-ओ-बाम का अफ़्सूँ
यूँ है कि मिरे घर की ये तन्हाई अजब है
सूरज से उतरते हैं मिरे हर-बुन-ए-मू पर
आँखें भी रखूँ बंद तो बीनाई अजब है
हर दिन सितम-ईजाद है हर रात सियह-फ़ाम
यारब ये तिरी अंजुमन-आराई अजब है
पिघला हुआ सोना थी जो दीवार-ओ-सक़फ़ पर
वो धूप घड़ी भर में ही कजलाई अजब है
नस नस में फिसलता है तिरे क़ुर्ब का नश्शा
हर मौजा-ए-ख़ूँ-नाब की गहराई अजब है
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