अपनी लौ में कोई डूबा ही नहीं
अपनी लौ में कोई डूबा ही नहीं
चाँद एहसास का उभरा ही नहीं
कोई आहट न कोई नक़्श-ए-क़दम
जैसे दिल से कोई गुज़रा ही नहीं
चूर आईना-ए-अय्याम भी है
मेरा माज़ी मिरा फ़र्दा ही नहीं
दर्स मैं भी हूँ ज़माने के लिए
एक इबरत-गह-ए-दुनिया ही नहीं
कितनी सदियों पे रुकेगा जा कर
एक लम्हा कि जो बीता ही नहीं
कितना हैराँ है दहान-ए-तस्वीर
अक्स आवाज़ का उतरा ही नहीं
मैं भी था शहर-ए-सुख़न का मेआ'र
मेरे नक़्क़ाद ने परखा ही नहीं
यूँ चमकती है 'समद' काहकशाँ
जैसे तारा कोई टूटा ही नहीं
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