दिल को उजड़े हुए बीते हैं ज़माने कितने
दिल को उजड़े हुए बीते हैं ज़माने कितने
किल्क-ए-तक़दीर ने लूटे हैं ख़ज़ाने कितने
भूल जाता हूँ मगर सच तो यही है बरसों
तुम से वाबस्ता रहे ख़्वाब सुहाने कितने
दिल दुखाती ही रही गर्दिश-ए-अय्याम मगर
हम भी मसरूफ़ रहे ख़ुद भी न जाने कितने
एक हम और ये दुश्नाम-तराज़ी तौबा
अपने अतराफ़ रहे आइना-ख़ाने कितने
इक नज़र देख लिया था किसी गुल की जानिब
नुक्ता-चीनों ने तराशे हैं फ़साने कितने
गर नहीं वस्ल तो फिर बादा-ओ-साग़र ही सही
दिल ने ढूँडे हैं धड़कने के बहाने कितने
उम्र-ए-रफ़्ता को जो आवाज़ कभी दी हम ने
खुल गए ज़ख़्म कई, बाब पुराने कितने
ग़मज़ा-ओ-रम्ज़ में 'सलमान' तफ़ावुत रखते
और आएँगे तुम्हें नाज़ दिखाने कितने
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