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मसअला हुस्न-ए-तख़य्युल का है न इल्हाम का है - सलमा शाहीन कविता - Darsaal

मसअला हुस्न-ए-तख़य्युल का है न इल्हाम का है

मसअला हुस्न-ए-तख़य्युल का है न इल्हाम का है

ये फ़साना ज़रा मुश्किल दिल-ए-नाकाम का है

रात-दिन पहरों-पहर उस की अदा के चर्चे

ये तमाशा भी मिरे वास्ते किस काम का है

मुस्कुराने लगे हर सम्त मोहब्बत के चराग़

तेरे चेहरे का तसव्वुर भी बड़े काम का है

सूनी सूनी थीं जो आँखें वो दोबारा हंस दें

नज़र आया है जो मंज़र वो उसी शाम का है

इस तअल्लुक़ का कोई रंग न ढलने पाया

तज़्किरा शे'रों में अब भी उसी गुलफ़ाम का है

ले उड़ीं ज़र्द हवाएँ मिरे घर से ख़ुशबू

बाम-ओ-दर क्या हैं दरीचा मिरे किस काम का है

फ़स्ल हो जाए तो बढ़ती है ख़ुशी से दूरी

आप का क़ुर्ब ये सच है बड़े आराम का है

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In Hindi By Famous Poet Salma Shaheen. is written by Salma Shaheen. Complete Poem in Hindi by Salma Shaheen. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.