ज़ब्त की हद से गुज़र कर ख़ार तो होना ही था
ज़ब्त की हद से गुज़र कर ख़ार तो होना ही था
शिद्दत-ए-ग़म का मगर इज़हार तो होना ही था
आइने कब तक सलामत रहते शहर-ए-संग में
एक दिन पत्थर कोई बेदार तो होना ही था
ख़ाक में मिलना ही था इक दिन ग़ुरूर-ए-ज़िंदगी
रेत की दीवार को मिस्मार तो होना ही था
किस तरह करते नज़र-अंदाज़ अपने आप को
इक न इक दिन ज़िंदगी से प्यार तो होना ही था
कोई आमादा न था राहें बदलने के लिए
रास्ता मिल्लत का फिर दुश्वार तो होना ही था
जिस तरफ़ देखा उधर अपने ही थे ख़ंजर-ब-कफ़
फिर मिरे ईसार को तलवार तो होना ही था
ख़्वाहिशें बे-रब्त थीं बे-ज़ौक़ था दस्त-ए-तलब
ऐसी हाजत का सिला इंकार तो होना ही था
एक दिन कहना ही था इक दूसरे को अलविदा'अ
आख़िरश 'सालिम' जुदा इक बार तो होना ही था
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