ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ
ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ
मैं अपना दर्द हमा-गीर करता रहता हूँ
रिदा-ए-लफ़्ज़ चढ़ाता हूँ तुर्बत-ए-दिल पर
ग़ज़ल को ख़ाक-ए-दर-ए-'मीर' करता रहता हूँ
नबर्द-आज़मा हो कर हयात से अपनी
हमेशा फ़त्ह की तदबीर करता रहता हूँ
न जाने कौन सा ख़ाका कमाल-ए-फ़न ठहरे
हर इक ख़याल को तस्वीर करता रहता हूँ
बदलता रहता हूँ गिरते हुए दर-ओ-दीवार
मकान-ए-ख़स्ता में ता'मीर करता रहता हूँ
लहू रगों का मसाफ़त निचोड़ लेती है
मैं फिर भी ख़ुद को सफ़र-गीर करता रहता हूँ
उदास रहती हैं मुझ में सदाक़तें मेरी
मैं लब-कुशाई में ताख़ीर करता रहता हूँ
सदाएँ देती हैं 'सालिम' बुलंदियाँ लेकिन
ज़मीं को पाँव की ज़ंजीर करता रहता हूँ
(626) Peoples Rate This