ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
अब मुझे ज़िद है कि बर्बाद किया जाए उसे
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मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा