ये कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत से
तमाशा देख रहा हूँ मैं अपने जलने का
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नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
कुछ तो ठहरे हुए दरिया में रवानी करें हम
ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
मिरे ठहराव को कुछ और भी वुसअत दी जाए
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है