वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को
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बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
तमाम बिछड़े हुओं को मिलाओ आज की रात
कुछ तो ठहरे हुए दरिया में रवानी करें हम
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से