तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
अभी तक मेरे कमरे में धुआँ फैला हुआ है
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हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस