न जाने कैसी गिरानी उठाए फिरता हूँ
न जाने क्या मिरे काँधे पे सर सा रहता है
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दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
कितना मुश्किल हो गया हूँ हिज्र में उस के सो वो
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है