मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
जो भड़कती है तिरे छिड़के हुए पानी से
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ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ