मैं घटता जा रहा हूँ अपने अंदर
तुम्हें इतना ज़ियादा कर लिया है
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मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
हर एक साँस के पीछे कोई बला ही न हो
हुदूद-ए-शहर-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में