जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ
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अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
इक नए शहर-ए-ख़ुश-ए-आसार की बीमारी है
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है