हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम
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अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ
कुछ तो ठहरे हुए दरिया में रवानी करें हम
क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी
बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
बुझी बुझी हुई आँखों में गोशवारा-ए-ख़्वाब
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
दालान में कभी कभी छत पर खड़ा हूँ मैं