इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे
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वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
हंगामा-ए-सुकूत बपा कर चुके हैं हम
चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं आप अपने अंधेरों में बैठ जाता हूँ
तुम्हारी आग में ख़ुद को जलाया था जो इक शब
नए जहानों का इक इस्तिआरा कर के लाओ
कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
ज़िंदगी ने जो कहीं का नहीं रक्खा मुझ को
भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ