भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए
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आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
मेरी अर्ज़ानी से मुझ को वो निकालेगा मगर
न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
अब इस के बाद कुछ भी नहीं इख़्तियार में
दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की