ये भी इक रात कट ही जाएगी
सुब्ह-ए-फ़र्दा की मुंतज़िर है निगाह
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आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
माल-ओ-ज़र अहल-ए-दुवल सामने यूँ गिनते हैं
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ