साहिल पे क़ैद लाखों सफ़ीनों के वास्ते
मेरी शिकस्ता नाव है तूफ़ाँ लिए हुए
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बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
ये भी इक रात कट ही जाएगी
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
अपनी ख़ुद्दारी सलामत दिल का आलम कुछ सही