निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
मैं दोस्ती को जो रोया तो दुश्मनी भी गई
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जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
वुसअ'त-ए-दामान-ए-दिल को ग़म तुम्हारा मिल गया
ये भी इक रात कट ही जाएगी
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल