नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
न करेंगे न किनारों की तमन्ना की है
Gulzar
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निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
सितारे की तरह सीने में दिल डूबा किया लेकिन
बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
वुसअ'त-ए-दामान-ए-दिल को ग़म तुम्हारा मिल गया
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
साहिल पे क़ैद लाखों सफ़ीनों के वास्ते
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ