मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
ख़ुम तू ने बचा के रक्खे थे पैमाने मैं ने तोड़े हैं
Wasi Shah
Gulzar
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महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
ये भी इक रात कट ही जाएगी
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में