खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
अरे तौबा बड़ी तौबा-शिकन आवाज़ होती है
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यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
दिल ने सीने में कुछ क़रार लिया
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
माल-ओ-ज़र अहल-ए-दुवल सामने यूँ गिनते हैं
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
सितारे की तरह सीने में दिल डूबा किया लेकिन