जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
किसी की आँख में आँसू किसी के दामन में
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मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
ये भी इक रात कट ही जाएगी
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत