चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
लोगों ने संग-ए-राह समझ कर हटा दिया
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ये भी इक रात कट ही जाएगी
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
सितारे की तरह सीने में दिल डूबा किया लेकिन
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं