पा-ब-गिल
इक भिकारी की मानिंद
इक पेड़ वीरान से रास्ते पर खड़ा है
कोई भूला-भटका मुसाफ़िर जो गुज़रे कभी
एक पल को रुके
नर्म छाँव में दम ले ज़रा
और चलता बने
रहगुज़र पर वो बे-आसरा पेड़ चुप-चाप तकता रहे
अपने दामन को फैलाए
हर जाने वाले मुसाफ़िर को शाख़ें पुकारें
मगर कौन आए
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