ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज
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ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से