उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
अब वो गिन गिन के खिलाता है निवाले मुझ को
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ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है