कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ
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उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से