कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
सर उतर आते हैं शाहों के भी दस्तार के साथ
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उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा