हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
मैं बे-लिबास नहीं पैरहन उतार के भी
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आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा