हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
चलो 'सलीम' अब इंसान हो के देखते हैं
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
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Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Parveen Shakir
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शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी