इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
सवाल दिल का नहीं है मिरी ज़बान का है
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आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ