बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
क़ैद रखते हैं अँधेरों में उजाले मुझ को
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हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को