अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
मुफ़्लिसी तो भरी बरसात में बे-घर हुई है
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आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर