आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
आज दहलीज़ मिरी छत के बराबर हुई है
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आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का