आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
आज फिर लहजा हमारा इख़्तियार उस ने किया
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हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं