सलीम सिद्दीक़ी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का सलीम सिद्दीक़ी
नाम | सलीम सिद्दीक़ी |
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अंग्रेज़ी नाम | Saleem Siddiqui |
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
उम्र भर जिस के लिए पेट से बाँधे पत्थर
ख़ौफ़ आँखों में मिरी देख के चिंगारी का
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
आज रक्खे हैं क़दम उस ने मिरी चौखट पर
आज फिर अपनी समाअत सौंप दी उस ने हमें
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
तुझ को पाने के लिए ख़ुद से गुज़र तक जाऊँ
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें