ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
अपने होने का पता काफ़ी है
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बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग
हाँ कहीं जुगनू चमकता था चलो वापस चलो
आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
यक़ीन है कि वो मेरी ज़बाँ समझता है