वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग
देख रहा हूँ शीशे के घर चारों ओर
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Gulzar
Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
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नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
हाँ कहीं जुगनू चमकता था चलो वापस चलो
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना