उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
तो फिर वो अब्र को क्यूँ साएबाँ समझता है
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रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
अबजद
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था
लगता है वो आज ख़्वाब जैसा
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना