कब तक इन आवारा मौजों का तमाशा देखना
गिन चुके हो साअतों के तार तो वापस चलो
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आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
फिर न आएगा ये लम्हा सोच ले
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था
अबजद
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
सदियों के रंग-ओ-बू को न ढूँडो गुफाओं में
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
यक़ीन है कि वो मेरी ज़बाँ समझता है
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी