हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
वो इक ज़ख़्मी परिंदे की तरह था
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रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग
अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
बाल-ओ-पर हों तो फ़ज़ा काफ़ी है
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
अबजद
आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत
रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
रेत पर मुझ को गुमाँ पानी का था