आग भी बरसी दरख़्तों पर वहीं
काल बस्ती में जहाँ पानी का था
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अन-कही कह अन-सुनी बातें सुना
किसी रुत में जब मुस्कुराता है तू
नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर
उसे पता है कि रुकती नहीं है छाँव कभी
बातों में है उस की ज़हर थोड़ा
रंग ताबीर का टूटे हुए ख़्वाबों में नहीं
शहरयारों ने दिखाईं मुझ को तस्वीरें बहुत
फिर न आएगा ये लम्हा सोच ले
हवा की ज़द में पत्ते की तरह था
रहा वो शहर में जब तक बड़ा दबंग रहा
वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग